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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4257
आईएसबीएन :00000

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सुनसान के सहचर....

Sunsan Ke Sahchar - a autobiography of Sriram Sharma Acharya

इसे एक सौभाग्य, संयोग ही कहना चाहिए कि जीवन को आरम्भ से अन्त तक एक समर्थसिद्ध पुरुष के संरक्षण में गतिशील रहने का अवसर मिल गया। उस मार्गदर्शक ने जो भी आदेश दिए वे ऐसे थे जिनमें इस अकिंचन जीवन की सफलता के साथ-साथलोक-मंगल को महान् प्रयोजन भी जुड़ा है। 

१५ वर्ष की आयु से उनकी अप्रत्याशित अनुकम्पा बरसनी शुरू हुई। इधर से भी यहप्रयत्न हुए कि महान् गुरु के गौरव के अनुरूप शिष्य बना जाए। सो एक प्रकार से उस सत्ता के सामने आत्म समर्पण ही हो गया। कठपुतली की तरह अपनी समस्तशारीरिक और भावनात्मक क्षमताएँ उन्हीं के चरणों पर समर्पित हो गयीं। जो आदेश हुआ उसे पूरी श्रद्धा के साथ शिरोधार्य कर कार्यान्वित किया गया।अपना यही क्रम अब तक चलता रहा है। अपने अद्यावधि क्रिया-कलापों को एक कठपुतली की उछल-कूद कहा जाय तो उचित ही विशेषण होगा। 

पन्द्रह वर्ष समाप्त होने और सोलहवें में प्रवेश करते समय यह दिव्य साक्षात्कारमिलन हुआ। उसे ही विलय कहा जा सकता है। आरम्भ में २४ वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ इन दो पदार्थों के आधार पर अखण्ड दीपक के समीप २४ गायत्रीमहापुरश्चरण करने की आज्ञा हुई। सो ठीक प्रकार सम्पन्न हुए। उसके बाद दस वर्ष तक धार्मिक चेतना उत्पन्न करने के लिए प्रचार, संगठन, लेखन, भाषण एवंरचनात्मक कार्यों की श्रृंखला चली। ४ हजार शाखाओं वाला गायत्री परिवार बनकर खड़ा हो गया। उन वर्षों में एक ऐसा संघ बनकर खड़ा हो गया, जिसेनवनिर्माण के लिए उपयुक्त आधारशिला कहा जा सके। चौबीस वर्ष की पुरश्चरण साधना का व्यय दस वर्ष में हो गया। अधिक ऊँची जिम्मेदारी को पूरा करने केलिए नई शक्ति की आवश्यकता पड़ी। सो इसके लिए फिर आदेश हुआ कि इस शरीर को एक वर्ष तक हिमालय के उन दिव्य स्थानों में रहकर विशिष्ट साधना करनी चाहिएजहाँ अभी भी आत्म चेतना का शक्ति प्रवाह प्रवाहित होता है। अन्य आदेशों की तरह यह आदेश भी शिरोधार्य ही हो सकता था। 

सन् ५८ में एक वर्ष के लिए हिमालय तपश्चर्या के लिए प्रयाण हुआ। गंगोत्री मेंभगीरथ के तप-स्थान पर और उत्तरकाशी में परशुराम के तप-स्थान पर यह एक वर्ष की साधना सम्पन्न हुई। भगीरथ की तपस्या गंगा-अवतरण को और परशुराम कीतपस्या दिग्विजय महापरशु प्रस्तुत कर सकी थी। नव निर्माण के महान् प्रयोजन में अपनी तपस्या के कुछ श्रद्धाबिन्दु काम आ सके तो उसे भी साधना की सफलताही कहा जा सकेगा। 

उस एक वर्षीय तप साधना के लिए गंगोत्री जाते समय मार्ग में अनेक विचार उठतेरहे। जहाँ-जहाँ रहना हुआ, वहाँ-वहाँ भी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार मन में भाव भरी हिलोरें उठती रहीं। लिखने का व्यसन रहने से उनप्रिय अनुभूतियों को लिखा भी जाता रहा। उनमें से कुछ ऐसी थीं, जिनका रसास्वादन दूसरे करें तो लाभ उठाएँ। उन्हें अखण्ड-ज्योति में छपने भेजदिया गया, छप भी गयीं। अनेक ऐसी थीं जिन्हें प्रकट करना अपने जीवनकाल में उपयुक्त नहीं समझा गया सो नहीं छपाई गयीं। 

उन दिनों “साधक की डायरी के पृष्ठ” “सुनसान के सहचर” आदि शीर्षकों से जो लेख“अखण्ड-ज्योति” पत्रिका में छपे, वे लोगों को बहुत रुचे। बात पुरानी हो गई पर अभी लोग उन्हें पढ़ने के लिए उत्सुक थे। सो इन लेखों को पुस्तकाकार मेंप्रकाशित कर देना उचित समझा गया। अस्तु यह पुस्तक प्रस्तुत है। घटनाक्रम अवश्य पुराना हो गया, पर उन दिनों जो विचार अनुभूतियाँ उठतीं, वे शाश्वतहैं। उनकी उपयोगिता में समय के पीछे पड़ जाने के कारण कुछ अन्तर नहीं आया है। आशा की जानी चाहिए भावनाशील अन्त:करणों को वे अनुभूतियाँ अभी भी हमारीही तरह स्पंदित कर सकेंगी और पुस्तक की उपयोगिता एवं सार्थकता सिद्ध हो सकेगी। 

एक विशेष लेख इसी संकलन में और है वह है-“हिमालय के हृदय का विवेचन-विश्लेषण। ”बद्रीनारायण से लेकर गंगोत्री के बीच का लगभग ४०० मील परिधि का वह स्थान है, जो प्रायः सभी देवताओं और ऋषियों का तप केन्द्र रहा है। इसे ही धरतीका स्वर्ग कहा जा सकता है। स्वर्ग कथाओं के जो घटनाक्रम एवं व्यक्ति चरित्र जुड़े हैं, उनकी यदि इतिहास-भूगोल से संगति मिलाई जाये तो वे धरतीपर ही सिद्ध होते हैं और उस बात में बहुत वजन मालूम पड़ता है, जिसमें इन्द्र के शासन एवं आर्ष-सभ्यता की संस्कृति का उद्गम स्थान हिमालय काउपरोक्त स्थान बताया गया है। अब वहाँ बर्फ बहुत पड़ने लगी है। ऋतु परिस्थितियों की श्रृंखला में अब वह हिमालय का हृदय असली उत्तराखण्ड इसयोग्य नहीं रहा कि वहाँ आज के दुर्बल शरीरों वाला व्यक्ति निवासस्थान बना सके। इसलिए आधुनिक उत्तराखण्ड नीचे चला गया और हरिद्वार से लेकरबद्रीनारायण, गंगोत्री, गोमुख तक ही उसकी परिधि सीमित हो गयी है। 

“हिमालय के हृदय” क्षेत्र में जहाँ प्राचीन स्वर्ग की विशेषता विद्यमान है, वहाँतपस्याओं से प्रभावित शक्तिशाली आध्यात्मिक क्षेत्र भी विद्यमान है। हमारे मार्गदर्शक वहाँ रहकर प्राचीनतम ऋषियों की इस तप संस्कारित भूमि से अनुपमशक्ति प्राप्त करते हैं। कुछ समय के लिए हमें भी उस स्थान पर रहने का सौभाग्य मिला और वे दिव्य स्थान अपने भी देखने में आये। सो इनका जितनादर्शन हो सका, उसका वर्णन अखण्ड ज्योति में प्रस्तुत किया गया था। वह लेख भी अपने ढंग का अनोखा है। उससे संसार में एक ऐसे स्थान का पता चलता है,जिसे आत्म-शक्ति का ध्रुव कहा जा सकता है। धरती के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुवों में विशेष शक्तियाँ हैं। अध्यात्म शक्ति का एक धुव हमारीसमझ में आया है। जिसमें अधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ भरी पड़ी हैं। सूक्ष्म शक्तियों की दृष्टि से भी और शरीरधारी सिद्ध पुरुषों की दृष्टि सेभी। 

इस दिव्य केन्द्र की ओर लोगों का ध्यान बना रहे, इस दृष्टि से उसका परिचय तो रहनाही चाहिए, इस दृष्टि से उस जानकारी को मूल्यवान् ही कहा जा सकता है। ब्रह्मवर्चस्, शान्तिकुंज, गायत्री नगर का निर्माण उत्तराखण्ड के द्वारमें करने का उद्देश्य यही रहा है। जो लोग यहाँ आते हैं, उनने असीम शान्ति प्राप्ति की है। भविष्य में उसका महत्त्व असाधारण होने जा रहा है। उनसम्भावनाओं को व्यक्त तो नहीं किया जा रहा है। अगले दिनों उनसे लोग चमत्कृत हुए बिना न रहेंगे। 

- श्रीराम शर्मा आचार्य

विषय क्रम

 

  1. हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
  2. हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
  3. चाँदी के पहाड़
  4. पीली मक्खियाँ
  5. ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
  6. आलू का भालू
  7. रोते पहाड़
  8. लदी हुई बकरी
  9. प्रकृति के रुद्राभिषेक
  10. मील का पत्थर
  11. अपने और पराये
  12. स्वल्प से सन्तोष
  13. गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
  14. सीधे और टेढ़े पेड़
  15. पत्तीदार साग
  16. बादलों तक जा पहुँचे
  17. जंगली सेव
  18. सँभल कर चलने वाले खच्चर
  19. गोमुख के दर्शन
  20. तपोवन का मुख्य दर्शन
  21. सुनसान की झोपड़ी
  22. सुनसान के सहचर
  23. विश्व-समाज की सदस्यता
  24. लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
  25. हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
  26. हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ


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